रात्रिभोज कब का ख़त्म हो चुका था
माँजे जा चुके थे बरतन
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष सब बिला चुके थे
पहाड़ी सर्दी के गर्म गुदगुदे बिस्तर में
बेटे की काफ़ी देर पहले बंद हो चुकी
प्यारी-सी पटर-पटर के बाद
अब एक अजीब-सी खटर-पटर
हड़कंप-सा कुछ
किंचित रहस्य भरा
एक छोटा भूचाल-सा उठा रसोई की ओर से
जहाँ अब जूठन भी नहीं बची
वो उठी थोड़ा डरी पर अलसा गई
उचटी नींद और ढहते हुए सपने के साथ टार्च जला देखने गया मैं
लौटा मुझे अचानक दे दिए गए साम्राज्य की पर्याप्त जाँच-पड़ताल के बाद
जागा पूरी तरह हँस कर बोला -
कुछ नहीं... छछूंदर थी.. . बस्स...!
देखा उसने भी
नींद के लिहाफ़ से बाहर निकल
बोली - अब छछूंदर ही थी तो फिर इतना हँसने की
क्या बात ?
ओह...
दिन भर के न जाने किन-किन कामों और निरर्थक बहसों से थके
अब तक थे हम दोनों ही
सोते हुए
एक बजे की नीरव निस्तब्ध निशा के छेकानुप्रास में
अनायास ही बरबाद था जीवन
उसको
एक छछूंदर ने फिर आबाद किया